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बरसात / केशव
Kavita Kosh से
अभी- अभी तो
धूप थी
यहाँ
कुछ चकित
कुछ ठगी-सी
अभी-अभी
तो थे लोग
भी
यहाँ
कुछ सहमे
कुछ-कुछ स्वछंद
कौन
पी गया
उस भीड़ को
चुग लिए किसने चूप के नन्हे टुकड़े
कौन आकर
फैल गया
अकस्मात
चप्पे—चप्पे पर टप-टप-टप रखता कदम
बस खड़ी है
एक अकेली लड़की
पेड़ के तने से चिपकी
आसमान को
छते पर थामे
इस यकीन को
मुट्ठियों में भींचे
कि पेड़ के बाद
सिर्फ वही एक है
जो धूप को
आसमान से उतार स बिछा सकती है
फिर
उन्हीं-उन्हीं
लोगों के बीच
जिनके पास
छाते नहीं
पेड़ नहीं
न है
धूप की
चुटकी भर उम्मीद
जिन्हें धूप ने
पल भर को ठगा है
और
एक चुटकी भर ख़तरा
अपने से बड़ा लगा है