बरसात / सुदर्शन वशिष्ठ
एक
रिमझिम बरसता हो पानी
या गिरती हो आटे सी महीन फुहार
घर की खिड़की से आँगन में उछलती
बूँदें देखें
सूँघें भूनी मक्की की भीनी खुशबू
काले महीने में घर लौटी बहन से
सुनें सास की बातें
हँसते हुये रोएँ
रोते हुए हँसें
आओ बरसात देखें।
दो
खिड़की में बैठ
छत पर पड़ती टप-टप सुनें
देखें बापू के माथे की गहराती लकीरें
माँ को रखते देखें जगह-जगह
कटोरी गिलास तसला या बाल्टी
टपकती बूँदों तले
छत पर बढ़ते शोर के बीच
कटोरी गिलास में
सुनें टपाकड़े का संगीत
माँ, जो डरती है बरसात में
टपाकड़े से
सिंह से नहीं डरती शेर से नहीं डरती
भरता देखें खिड़की से
बापू की चिंताओं का पोखर
हम संगीत सुनें
आओ बरसात देखें।
तीन
घनघोर घटाओं में
सहें बौछारों के बाण
कच्चे घर की भीगती कन्धें
भीगें, भीग कर सूखें
फिर भीगें
ऐसी भीगती रात में
जागते हुए सोयें
सोते हुए जागें
आओ बरसात देखें।
चार
चलता हुआ सँत
बहता हुआ पानी
कभी न मैला होवे
जो जागे सो पावे
जो सोये वो खोये।
'पाँच
कब बनता है पानी बादल
कब बादल पानी
यह तत जाने ज्ञानी
जल में कुम्भ,कुम्भ में जल है
बाहर भीतर पानी।
छह
बरसाता है पानी अम्बर
नहीं देखता धरती की सीमा
रिस नहीं पाता जब धरती में
तब बहता है पानी
हो जाता है तब पानी ही पानी
दुनिया बन जाती है फानी
कहाँ से आता है इतना पानी
कहाँ को जाता इतना पानी।
सात
है इक सूरत इक सीरत आज
इन्सान और पानी
पानी का नहीं होता अपना रँग
अपना आकार
इन्सान भी है आज पानी
बदलता रहता हर पल हर क्षण
आठ
कहते हैं
कोई सच्चा इन्सान हिलाये बांस से बादल
तो बरसते हैं।
मिलता नहीं आज ऐसा इन्सान
ढूँढते फिरते हैं बादल
घाटियों, पर्वतों मैदानों में
एक सच्चा इन्सान।