बरसी है आखी रात
काली कलायण
सिंची है पोर-पोर
जन्मों से तपती रेत।
सींवण घास-सी
मुझ समूचे में उग रही है
पुलक !
अगोरती है उस रेवड़ को
जो मुझ को गोचर कर दे !
(1976)
बरसी है आखी रात
काली कलायण
सिंची है पोर-पोर
जन्मों से तपती रेत।
सींवण घास-सी
मुझ समूचे में उग रही है
पुलक !
अगोरती है उस रेवड़ को
जो मुझ को गोचर कर दे !
(1976)