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बरसों पहले / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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बरसों पहले
नदीघाट पर
पगडंडी का गीत सुना था

साधू की समाधि पर
आता था तब होरी रोज़ सबेरे
तब थे व्यापे नहीं नदी पर
महानगर के घने अँधेरे

गुंबद-मीनारों का
तट तक
जाल नहीं तब गया बुना था

अपराधी तब नहीं हुए थे
साधू और फ़कीर घाट के
तब फ़रमान नहीं आते थे
नदी-किनारे बड़ी लाट के

उन्हीं दिनों
हमने सुहाग का
पहला-पहला पाठ गुना था

ऋतु का मंत्र जपा था हमने
तभी आरती की बेला में
शामिल नहीं हुए थे सपने
तब तक बाज़ारू खेला में

स्वारथ की
मंडी का रस्ता
शाहों ने भी नहीं चुना था