भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बरसों बाद / भूपिन्दर बराड़
Kavita Kosh से
वह आता था लोकल ट्रेन से
थका हारा, शाम का साया कन्धों पर लपेटे
वह सीढ़ियां चढ़ता था
नपे तुले क़दमों से
दरवाज़े के पीछे
वह कर रही होती थी
इंतजार उन क़दमों का
उन्हें विश्वास था
बिना किसी रहस्य और विस्मय के
इसी तरह कट जायेंगे उनके दिन
देखें तो बरसों बाद भी
लगभग वैसा ही चल रहा है जीवन
बहुत कुछ वैसा ही है
कन्धों पर लिपटा शाम का साया
नपे तुले क़दमों की आहट
दस्तक देते ही दरवाज़े का खुलना
आओ, कहते हुए पलटना उस स्त्री का
हाँ बहुत कुछ वही है
बस वही नहीं है
जिसकी दस्तक सुनती है
वह बरसों बाद