बर्फ़ की चट्टान / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
हो गई है ज़िन्दगी अब बर्फ़ की चट्टान-
हाय, दबकर रह गया इसमें मनुजा का गान!
बर्फ की कैसी लहर आई इधर बेरोक-
मनुज की सब चेतना जम हो गई हिमलोक!
आज मैं किस वज्र का लाऊँ प्रखर हथियार-
छीलकर सब बर्फ, धरती को करूँ निर्भार!
किस प्रलय के सूर्य को लाऊँ मना कर आज-
तप्त जिसकी तेज किरणों से, विकट हिमराज-
पिघल जावे घी-सरीखा, भग्न हो यह मौन!
पथ प्रलय-रवि-अश्वशाला को बतावे कौन!
आज मैं कवि, देख यह-कैसा खड़ा निरुपाय!
मैं मनुज के गीत को कैसे बचाऊँ, हाय?
मैं मनुज के चंदनी सपने करूँ उन्मुक्त-
केसरी चाहें उगाऊँ-गीत से संयुक्त!
मैं मनुज को दूँ सुनहले गीत, तोड़े, तान,
स्वप्न, स्वर, रोमांच, आभा, गीत, मृदु मुसकान!
हो गई है ज़िन्दगी अब बर्फ़ की चट्टान-
हाय, दबकर रह गया इसमें मनुज का गान!