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बर्फ़ / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
पेड़ झाड़ी खम्बे घरों पर
छाई है बर्फ़
सफेद-सफेद बस सफेद रंग
लाई है बर्फ़
गर्म जैकेटों में छिपे जिस्मों के लिये
नर्म गोला हुई है बर्फ़
लम्बे बूटों में छिपे पैरों के नीचे
खेल हुई है बर्फ़
पुरानी फोटो के साथ अखबारों के लिये
नई खबर हुई है बर्फ़
नज़ारा ही नज़ारा हुई बर्फ़
हनीमून की चाँदनी हुई बर्फ़।
यह मत सोचो बर्फ़ नजारा ही है
नँगे पैरों को जो सालती है
वह बर्फ़ है
चिथड़ों के पार जो लाँघ जाती है
वह बर्फ़ है
बुझा जाती है जो लौ झुग्गियों की
वह बर्फ़ है
राम से बिछुड़े हनुमानों को जो कुमुनाती है
वह बर्फ़ है
सर्दी की बर्फ़ीली रात
और महाजन की कागज़ी वही
घटती नहीं है रे।