बर्लिन की दीवार / 30 / हरबिन्दर सिंह गिल
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
वे संबंध भी बनाते हैं।
यदि ऐसा न होता
दरों की दीवारें
वो पत्थरों की बनी होती हैं
शायद किसी भी परिवार के
किसी भी सदस्य के लिये
क्योंकर दिन प्रति-दिन
प्रिय होती चली जातीं।
यह इसलिये है
क्योंकि परिवार के सदस्य तो
समय के साथ-साथ
बदलते चले जाते हैं
कुछ नये जन्म लेते हैं
और कुछ बुजुर्ग अलविदा कह जाते हैं।
मगर ये दीवारें जो पत्थरों की हैं
हर जाने वाले की यादों को
अपने आप में इतनी समेट लेती हैं
कि मानव उन्हें अपने आप से भी
ज्यादा चाहने लग पड़ता है।
तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
कह रहे हैं कि मानव
बने मानवीय संबंध
देश को विभाजित करने वाली
दीवारों तक ही न सीमित रखों।
मानवता की सीमाएं ये नहीं हैं
उनकी सीमाएं तो उस क्षितिज तक हैं
जहाँ पूर्व से सूर्य उदय होता है
और पश्चिम में है होता अस्त।