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बर्स बीतिगैन भुला / अश्विनी गौड 'लक्की'

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बर्स बीतिगैन भुला,
भभराणीं नी आग चुला,
रीति तिबार, छज्जा-डंडयाळि,
घसे-पुते नि हवे भुला।
बंद म्वोर बंद द्वार,
धुयेडु लगीं आथर संगाड,
ख्वोळि का गणेश र्यां,
द्वार त हुगाड भुला।
धुरपळे पठ्ठाळि रडिग्ये
कंडाळि जामिग्ये खौळा
साट्यू कुठार मूसू डार
छपडा मकडू बार भुला।
कुकूर-बांदरु डार मा
बिना भ्वींचळो हलकुणू
तुमारि जग्वाळ बेठ्यू,
होडु-होडु फरकुणू।
दिन सि बि समळोंण्या रैन
जब भात थडकुदू छो फूळा
मैं बर्सू बटि भूखू छूं
चौंसू भात खवो भुला।
फेडा लपांग हिटण बिसर्या
खदरा पैंणु सैंकण भुला
तरस्यूं सरील,
खुदयूं परांण
जूंदा तलक ऐजा भुला।
जंगला बंगला मा फुन बिसरीं
मनख्याता भौ भुला,
चूनू कम्येडु, मटघण्यां माटन,
कबरि कन चमकोंदु छो मैंतै भुला।
बाप-दादे चौं, थर्पि,
माटन ढकौण ऐजा भुला
सग्वाडि तिरवाळ मर्च लगीऽ
ठुंगार लगौण ऐजा भुला।
हट्टी-वबरा धौर्यू पर्या,
मुसघोळयूं उठयू रोळा,
घ्यू-दूधे छराक बगौण
फ्येर बोडि ऐजा भुला।
क्वेठडि मगा थर्प्या द्यवता,
बार-त्येवार रंदन हय्न्ना
ढुंगू सी कटकटु परांण
माटु होंण से पैलि ऐजा।
माटु होंण से पैलि ऐजा।