बल दे / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
दे द्वार खोल दारूणतर
मेरे अवरूद्ध हृदय का;
अंतर्जग गुंजित कर दे
पढ़ अक्षय-मंत्र विजय का!
यह अंधकार प्राणों का
यह घोर क्षुद्रता मन की;
ओ महाशक्ति माँ! हर ले
यह निर्बलता जीवन की!
चंडिके! क्रोध का अपने
भीषण-तूफान बहा दे!
संसार चकित रह जावे
तू ऐसा अस्त्र गहा दे!
जागृति की आज भयंकर
उमड़े उमंग नस-नस में!
तांडव विनाश दिखलावे
मज्जित हो करुणा-रस में!
तम को नीरव-छाया में
तेरी असि चमक रही है;
हिलती हें नभ की कड़ियाँ
थर्राती विपुल-मही है!
चिल्लाकर भाग रहा है
संदेह छिपाये मुख को;
इच्छाएँ आज बनी हैं
भैरवी भूल सब सुख को!
पागल हो झूमरहा है
यौवन कराल विष पीकर;
फटतीं नभ की दीवारें
कल्लोलित होता सागर!
उस ओर विजय हँसती है
पहरे माला तारों की;
झुक-झुक सौभाग्य चढ़ाता
मृदु-भेंट हृदय-हारों की!
रक्तताक्त-वासना रोती
लघु-मृत्यु-अंक में छिपकर;
काँपते स्वयं हैं भय से
देवादिदेव प्रलयंकर!
हाँ, द्वार खुला तू आई
फूटीं प्रकाश की कलियाँ;
काफूर हो गईं सारी
माया-जग की बेकलियाँ!
आ जये देवि! जगदम्बे
अम्बिके कराली-काली;
आ सिंहवाहिनी! आ तू
आ दुर्गे खप्परवाली!
त्योरियाँ बदल आँखों से
झर-झर-झर आग उगल दे;
फैलाकर अष्ट भुजायें
बल दे! बच्चों को बल दे!
25.3.28