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बवाल / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

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हवाओँ में ढूढ़ा नहीँ मिले
बवंडर उठा दिए मैंने
आंधिया आ गई
शीतल बयार भी ठिठुरा गई पर
तुम नहीँ मिले

पानी में भी नही
पानी की प्यास में भी नहीँ
आँखों में भी उतर आया पानी
जम गया वादियों में
पर तुम नहीँ मिले

धरा कि गहराई में छुपे हो
इसलिए खोदती चली गई
थक गई अपनी दो गज़ ज़मीन की
जुगाड़ कर बैठी पर
तुम नहीँ मिले

आसमान में निगाह गड़ाए
तकती रही
गर्दन में बल आ गया
गिर गई ठोकरों से लेकिन
तुम नहीँ मिले

अँधेरा छा गया
चांदनी छिटक गई
चाँद आ कर चला भी गया
सूरज चौंधिया गया आंखें पर
तुम नहीँ मिले

रात आग भी जलाई थी
हाथ भी जलाया था
एक सिसकारी भी निकली थी
कि आंच राख में दब गई पर
तुम न मिले

सहसा खिन्न हुई
निर्जीव की ओर आकृष्ट हुई
सहजता भी खो दी
कड़वी हो गई पर
तुम न मिले

सोचा निर्लिप्त हो जाऊँ
शायद तुमसे दूर हो पाऊँ
मिठास पा ही जाऊँ पर
तुम्हारे तुम से ना भाग सकी
हद तक गई पर
तुम न मिले

एक दिन
आसमान के नीचे
मिट्टी में सिमट गई
पानी में आग लगा
हवाओं संग निकल गई
कि अब तुम
ढूँढों मुझे अपने भीतर

कि मेरा भटकना
अब तक जो भी था
मैं और मेरी इच्छाएँ थीं
और
तन के चूल्हे पर
आत्मा का बवाल था!