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बसंत के इस मौसम में / रश्मि शर्मा
Kavita Kosh से
बसंत के इस मौसम में
पाया हमने
छलनाओं के जाल
का रंग
बासंती नहीं सतरंगा है।
रंगों के आकर्षण ने
मोहा था मन को
कर दिया समर्पण
अपना अस्तित्व
अपने प्राण
हरे पेड़ों का रंग अब
बदरंग भूरा सा है
वादों के सब्ज रास्तों में
अटी पड़ी है धूल-माटी
वो शाम
ठहर गयी जिंदगी की
जिस दिन
हटा था परदा एक सच से
प्रतिआरोपों की मूठ से
तिलमिलाई शाम
मृत्यु-शैया पर
अब भी ज़िंदा है
दहशत भरी रातें हैं
बियाबान सा दिन
पत्थरों पर लहरें
पटक रहीं माथा
समुन्दर का पानी
लाल हुआ जा रहा।
बहुत से पत्ते
टूट कर गिरे हैं पेड़ों से
सूखे होठों की फरियाद
निरस्त है
मेरे पतझड़ का मौसम
जमाने के लिए बसंत है।