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बसंत बहार / हरिऔध

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आ बसंत बना रहा है और मन।
बौर आमों को अनूठा मिल गया।
फूल उठते हैं सुने कोयल-कुहू।
फूल खिलते देख कर दिल खिल गया।

आम बौरे, कूकने कोयल लगी।
ले महक सुन्दर पवन प्यारी चली।
फूल कितनी बेलियों में खिल उठे।
खिल उठा मन, खिली दिल की कली।

भर उमंगों में भँवर हैं गूँजते।
कोयलों का चाव दोगुना हुआ।
चाँदनी की चंद की चोखी चमक।
देख चित किस का न चौगुना हुआ।

आम बौरे बही बयार बसी।
सज लतायें हरी भरी डोलीं।
बोल बाला बसंत का होते।
खिल उठीं बेलि, कोयलें बोलीं।

भाँवरें बार बार भर भौंरे।
फूल की देख कर फबन भूले।
कोंपलें देख कोयलें कूकीं।
दिल-कमल खिल गया कमल फूले।

हैं निराली रंगतें दिखला रहीं।
सेत कलियाँ, लाल नीली कोपलें।
फूल नाना रंग के, पत्ते हरे।
भौंर काले और काली कोयलें।

हैं लुभाती दिल भला किस का नहीं।
लहलहाती बेलि फूलों की महक।
गूँज भौंरों की, तितलियों की अदा।
कोयलों की कूज, चिड़ियों की चहक।

हैं फबे आज बेल बूटे भी।
झाड़ियों पर लसी लुनाई है।
दूब पर है अजब छटा छाई।
फूल ला घास रंग लाई है।

आज है और रंग काँटों का।
फूल हैं अंग बन गये जिन के।
कुछ अजब ढंग का हरापन पा।
हो गये हैं हरे भरे तिनके।

चाँद में है भर गई चोखी चमक।
चाँदनी में है भरी चाही तरी।
है फलों में भर गई प्यारी फबन।
फूल में हैं रंगतें न्यारी भरी।