भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसंत / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
और बसंत फिर आ रहा है
शाकुंतल का एक पन्ना
मेरी अलमारी से निकलकर
हवा में फरफरा रहा है
फरफरा रहा है कि मैं उठूँ
और आस-पास फैली हुई चीजों के कानों में
कह दूँ 'ना'
एक दृढ़
और छोटी-सी 'ना'
जो सारी आवाजों के विरुद्ध
मेरी छाती में सुरक्षित है
मैं उठता हूँ
दरवाजे तक जाता हूँ
शहर को देखता हूँ
हिलाता हूँ हाथ
और जोर से चिल्लाता हूँ-
ना...ना...ना
मैं हैरान हूँ
मैंने कितने बरस गँवा दिए
पटरी से चलते हुए
और दुनिया से कहते हुए
हाँ हाँ हाँ...