बसन्त-खण्ड / गेना / अमरेन्द्र
बहै छै हवा रेशमी गुदगुदाबै
कली केॅ दै किलकारी-चुटकी खिलाबै
खिली गेलोॅ फूलोॅ केॅ चूमै-हँसाबै
बिना झूला के ही दै धक्का झुलाबै
हिलाबै छै झोली केॅ आमोॅ रोॅ ठारी
कभी देखी आबै छै सरसों रोॅ क्यारी
छुवै फूल हौले बड़ी डरलोॅ-डरलोॅ
कहीं हरदियानोॅ रँ बिरनी ही अड़लोॅ
डरी केॅ उड़ै, तेॅ ऊ तितली तक पहुँचै
बड़ी गुदगुदो देह पाबी केॅ हुमचै
कहीं जोगबारिन रोॅ आँचल केॅ छूवी
कभी ओकरोॅ गालोॅ रोॅ गड्ढा मेँ डूबी
बढ़ावै छै विरहा रोॅ आगिन केॅ आरू
‘पिया पंथ ऐसे मेँ कब तक निहारू’
वहाँ सेँ जाय पहुँचेॅ छै आमोॅ के वन मेँ
कहाँ छै छनै मेँ, कहाँ फेनू छन मेँ
कभी मंजरी के रस नीचेॅ चुआबै
कभी छेड़ी कोयल केॅ हेन्है चिढ़ाबै
घड़ी देर ठारी पर बैठी केॅ झूलै
ई देखी केॅ गेना कदम्बे रँ फूलै
बड़ी देर सेँ देखी रहलोॅ छै खेला
मनारोॅ के ऐंगन मेँ फागुन रोॅ मेला
जरा भी नै चिन्ता कि बीमारो ऊ छै
तपै देह, साँसो बहै जेना लू छै
उपासोॅ सेँ लरपच रँ बत्ती छै भेलोॅ
बहै देखै-देखै मेँ कुव्वत कमैलोॅ
नै हाथोॅ मेँ शक्ति, नै देहोॅ मेँ ताकत
हुएॅ लागै छै साँसो लै मेँ भी धतपत
लगै झुर्री, तांतोॅ रोॅ नोचलेॅ रँ साड़ी
की चारो तरफ सेँ छै काँटोॅ रोॅ बाड़ी
उठै, तेॅ ऊ पीपर रोॅ पत्ता रँ डोलै
बसन्ती हवौं ओकरा बरियोॅ रँ झोलै
मतुर कुछ नै चिन्ता छै गेना केॅ जरियो
की सेवा सेँ सब्भे के कम ऊ छै बरियो
लुभाभै छै गेना केॅ फूलोॅ रोॅ खिलबोॅ
लता-फूल दोनों रोॅ लिपटी केॅ मिलबोॅ
कहीं फूल गोरोॅ, कहीं लाल रत-रत
बहै छै हवा दक्खिनी चाल धतपत
कि झाँकै छै ठारी सेँ टूसा के पाँती
उतारी केॅ गल्ला सेँ जाड़ा रोॅ गाँती
कहीं फूल खिललोॅ सेँ जीरी छै निकलै
कहीं पीत पाखी एक गेना केॅ दिखलै
बड़ी शोख, चंचल; बसन्ती हवा रँ
कि मरता पर जेना मकरध्वज दवा रँ
हिलाबै छै गरदन, कहै टी-वी टुट-टुट
सुनी जेकरोॅ बोली छै बेचैन झुरमुट
कि जन्नेॅ भी गेना छै मूड़ी हिलाबै
वहीं रास गोकुल रोॅ सिमटै-सुहाबै
सुहाबै गोबरधन रँ ठामे मनारो
कि जै पर बसन्तें मचाबै धूम आरो
बिछैलेॅ छै फूलोॅ रोॅ कोनें बिछौना
कि के ऐतै? फागुन मेँ केकरोॅ ई गौना
किनारी-किनारी मेँ पत्ता रोॅ झालर
की फूलोॅ रँ मुखड़ा के नीचेॅ मेँ कालर
गिरै छै, बहै मोॅद फूलोॅ सेँ चूवी
कि दोना लै घूमै छै भौरा के जोगी
बजाबै छै मुँह सेँ जे शंृगी सुरोॅ सेँ
सुनी केॅ ई तितली उड़ै छै डरोॅ सेँ
सुगन्धित छै धरती की; सरंगो तक गमगम
पन्नी रोॅ धूप चमकै, ज्यादा न कमकम
निहारी-निहारी केॅ गेना छै बेसुध
मतैलोॅ रँ लागै, हेरैलोॅ रँ सुधबुध
मने-मन विचारै छै बौंसी लेॅ गेना
”सिरिष्टी पर सजलोॅ छै सरंगे ही जेना
बड़ा धन्य हम्मेँ, यहाँ जन्म लेलौं
कि मिट्टी रोॅ ई तन ई मिट्टी पर पैलौं
जहाँ देव-दानव भी आबै लेॅ तरसै
जहाँ मोक्ष हेनै केॅ बरखा रँ बरसै
जहाँ चीर, चानन, सुखनियाँ बहै छै
किनारी-किनारी मेँ पर्वत रहै छै
जे देखै मेँ लागै छै; बौंसी ने मूड़ी
बनैलोॅ छै कत्तेॅ नी ब्रह्मा सेँ कूढ़ी
”सुहाबै छै पाँती मेँ पर्वत पर फूलोॅ
पिन्हैलेॅ छै गल्ला मेँ माला की? एहो
कहीं कोन रँ के, कहीं कौन रँ के
मिलै फूल ढूँढ़ोॅ जहाँ जोन रँ के
हवा जों छुवै छै तेॅ अनचोके सिहरै
नवेली दुल्हैनी के लट्टोॅ रँ लहरै’
”पहाड़ोॅ के नीचेॅ मेँ चारो तरफ सेँ
सरोवर सुहाबै; गिरै मीन छप सेँ
वही बीच खिललोॅ छै ढेरे कमल भी
कमल पर टिकुलिये रँ भौंरा रेाॅ दल भी
बड़ी साफ-सुथरा दिखाबै पापहरणी
कुमारियो के गालोॅ सेँ चिकनोॅ, सुवरणी
सरोवर मेँ पर्वत मनारोॅ के छाँही
की दूसरोॅ कोय पर्वत छै पकड़ी केॅ बाँही
की उठलोॅ छै धरती सेँ आधोॅ ही पर्वत”
विचारोॅ पर गेना रोॅ पड़लोॅ छै आफत
”पहाड़ोॅ के माथा पर विष्णु रोॅ मन्दिर
वहीं से बही रहलोॅ छै पानी झिर-झिर
बुझाबै छै गंगा जटा शिव सेँ निकली
बही रहलोॅ छै नीचेॅ एकदम सम्हली
की राधा ही चल्ली छै घेॅरोॅ सेँ निकली
पिया के विरह मेँ बड़ी खीन-दुबली
बऔली छै पर्वत पर, पोखर मेँ, वन मेँ
जरी रहलोॅ आगिन छै सौंसे बदन मेँ!
बजै छै पहाड़ोॅ रोॅ भीतर मेँ बाजा
महादेव के डमरू? की मुरली मेँ आ जा
बसन्तोॅ के भारोॅ सेँ धरती छै लदबद
गिरै छै आकासोॅ सेँ सुषमा की हदहद!
कहै छै-कभी भारती वन जे छेलै
वही आज आँखी मेँ बरबक्ती हेलै
फिरू सेँ फुललै की मालूर कानन?
खुली गेलै केना केॅ सुषमा रोॅ बान्हन!”
बड़ी याद आबै छै गेना केॅ ऊ सब
”इस्कूली के पीछू सेँ निकली केॅ झबझब
यहीं आबै देखै लेॅ फूलोॅ पर तितली
मतैली रसोॅ सें, ओंघैली रँ तितली
कभी बाँसबिट्टी सेँ तोड़ै बँसबिट्टोॅ
झड़ाबै पहाड़ी लतामोॅ केॅ मीट्ठोॅ”
बड़ी याद आबै छै गेना केॅ ऊ सब
इस्कूली के पीछू सेँ निकली केॅ झबझब
”ऊ भादोॅ रोॅ दिन मेँ सुखनिया रोॅ बोहोॅ
मिलै अच्छा-अच्छा केॅ जै मेॅ नै थाहोॅ
कुदेॅ -धौंस मारै ऊ हेना-मेँ-हेना
कि डाँड़ी मेँ कूदै कोय बड़का ही जेना
बहै नाव नाँखी।कभी तोॅर हेनोॅ;
मछलिये रँ। उपलै कभी सोंस जेहनोॅ
हँकाबै, मतुर के सुनै माय केरोॅ
खड़ा देखै टुक-टुक सब साथी के जेरोॅ
बड़ी याद आबै छै गेना केॅ ऊ सब
ऊ भादोॅ के चानन मेँ पानी रोॅ लबलब
”ऊ आसिन मेँ कासोॅ रोॅ फुलबोॅ-फुलैबोॅ
इस्कूली सेँ भागी वहीं मेँ नुकैबोॅ
वहीं बैठी घरघोट खेला रोॅ मंगल
कभी जोड़िये मेँ की कुस्ती रोॅ दंगल
‘यही पापहरणी किनारी मेँ अइयै
गुलेलोॅ सेँ गोली की गनगन चलय्यै
कभी अट्ठागोटी, कभी नुक्काचोरी
कभी घघ्घो रानी, तेॅ झुनझुन कटोरी
कबड्डी मेँ लँघी सेँ हम्में नै डरियै
जरो सा नै खेलोॅ मेँ बेमानी करियै
”ऊ जेठोॅ के लू खोललोॅ, कड़कड़ैलोॅ
अभी ताँय नै भुललोॅ छी देह पड़पड़ैलोॅ
”यही ठुठ्ठा पीपर रोॅ गाछी तरोॅ मेँ
नुकाय केॅ रहौं; जबकि सब्भे घरोॅ मेँ
यहाँ आबी साथी संग बकरी चरय्यै
कभी दू केॅ सींगे धरी केॅ लड़य्यै
अभी ताँय नै भुललोॅ छी बकरी रोॅ मेँ-मेँ
ई पीपर रोॅ ठारी पर सुग्गा के टें-टें
”तेॅ ढकमोरलोॅ कत्तेॅ रहै तखनी पीपर
बसन्ते सेँ अखनी छै कुछ पत्ता जै पर
यहीं आबी शुकरां की छोड़ै उदासी
यही ठहरै सब्भे सवासिन पियासी
दुलारी रोॅ डोली यहीं रुकलोॅ छेलै
अभी भी ऊ सूरत ई आँखी मेँ हेलै
जमुनिया रँ। पानी मेँ केकरौ सेँ ऊपर
सुशीलोॅ -सुभावोॅ मेँ सब्भे सेँ सुन्नर
भरी दिन अकेली यही खिलखिलाबै
कभी बेर, जामुन केॅ तोड़ै-झड़ाबै
कभी हेन्हैं ढेपोॅ सरोवर मेँ मारै
कभी पापहरणी मेँ मूँ केॅ निहारै
गुँजाबै पहाड़ोॅ केॅ बोली ‘दुलारी’
पहाड़ो भी बोलै वही रँ ‘दुलारी’
”बसन्तोॅ सेँ मोजरै जे आमोॅ रोॅ ठारी
टिकोलौं बुलाबै पुकारी-पुकारी
लगाबै बिछी जे टिकोला के कूरी
कभी फेनू ऐलै नै नैहर ऊ घूरी
”दुलारी रोॅ डोली यही रुकलोॅ छेलै
अभी भी ऊ सूरत ई आँखी मेँ हेलै
बड़ी कपसी-कपसी केॅ डोली सेँ झाँकी
ई छाती मेँ सुइया सै गेलोॅ छै गाँथी
”कहै छेलै-जामुन रोॅ गाछी मेँ राती
जरै छै बिलारोॅ रोॅ आँखी रँ बाती
डरोॅ सेँ नै हिन्नेॅ तेॅ कोय्यो भी आबै
दुपहरियाँ भी आबै मेँ बड़का भोआबै
दुलारी के गेला पर हम्में अकेलोॅ
यही आबी राती की खोजियै? हेरैलोॅ
भरी दिन दुलारी रोॅ यादोॅ मेँ गुमसुम
कभी अपनोॅ ऐड़ी रँगय्यै मतरसुन
हँकय्यै, बुलैय्यै बताहा रँ केकरा
की सोची केॅ करियै हर चीजोॅ मेँ बखरा
कभी तोड़ी लय्यै पलाशोॅ रोॅ झुक्का
मतुर होश ऐला पर सपना सब फुक्का”
भरी ऐलै गना रोॅ आँखी मेॅ आँसू
बड़ी पीर चोखोॅ, बड़ी पीर धाँसू
”बहैलोॅ छै अय्यो बसन्तोॅ रोॅ बोहीॅ
गिरै छै अकाशोॅ सुषमा की होॅ-होॅ
करै मोॅन कोयल रोॅ बोली मेँ बोली
चिढ़ाबौं भरी दग; अघैलोॅ, जी खोली
”पलाशेॅ रोॅ फुल्लोॅ छै की फूल पावन!
हथेली रँगेलोॅ? की लट्ठी रोॅ कंगन?
की कानी केॅ भेलोॅ छ आँखे ही रत-रत
बड़ी लाल; प्यारी दुलारी के? की सत?
”करै मोॅन सबटा पलाशे लै आनौं
जों बच्चो मेँ; होनै केॅ बाल केॅ खानौं
बनाबौं वही मेँ बड़ा घोॅर सुन्नर
सजाबौं दुआरी सेँ देहरी लै छप्पर”
निहारै छै गेना पलाशोॅ केॅ टक-टक
कभी प्राण हुलसै कभी प्राण हक-हक
थकी रहलै कोयल पुकारी-पुकारी
‘कुहू तों कहाँ छोॅ ‘दुलारी’ दुलारी?’
सुनी केॅ बड़ी प्राण गेना रोॅ हहरै
कलेजा कलेजा तक केन्हौ नै ठहरै
तभी बोली केकरो सुनी केॅ संभल्लै
पुजारी केॅ ऐतेॅ देखी केॅ बदललै
कहाँ सेँ बुझैलै हौ ताकत बदन मेँ
उठी केॅ झुकी गेलै हुनकोॅ चरन मेँ
भरी गेलै भावोॅ सेँ; गदगद भै गेलै
पुजारी रोॅ आँखी मेँ गंगा समैलै
उठै छै हृदय मेँ ऊ ममता के धूनी
भरी पाँजोॅ गेना केॅ लै लेलकै हुनी
समैलै आकाशोॅ मेँ; जेनां हिमालै
समय दुख केॅ हलकोरी चलनी सेँ चालै
गिरै छै पुजारी रोॅ आँसू पीठी पर
भिंजै छै मतुर गेना भीतर-ही-भीतर
कहाँ गेलै हौ रँ बीमारी के आगिन
कहाँ गेलै उस्सठ रँ जिनगी रोॅ धामिन
बुझाबै छै गेना केॅ हेनोॅ; नसोॅ मेँ
बहै नै लहू; जेनां, चन्दन-रसोॅ मेँ
कड़क मारी बिजली कोय देहोॅ मेँ फेलै
शरीरोॅ मेँ सृष्टि के सुषमा समैलै
बुझाबै पुजारी रोॅ बोली भ्रमर रँ
लहर मारै गेना रोॅ सौंसे ठो अंग-अंग
”सुनी केॅ बीमारी के बेचैन भेलौं
खँड़ामो नै पिन्हलौं कि झबझब छी ऐलौं
खबर फैली गेलोॅ छै बोहोॅ रँ एकरोॅ
सुनी केॅ ई फाटै छै छाती नै केकरोॅ!
सुफल करलौ जिनगी मनुक्खोॅ रोॅ। आशीष!
कि तोरे ही जय-जय विराजै सभै दिश
यही धर्म देवोॅ रोॅ, मानव रोॅ, सबके
कही गेलै हमरोॅ सब पुरखें। आय? कब के
”यही धर्मवाला महाकाल रोॅ भी
सरोॅ पर चढ़ी हाँसै-‘दुनियाँ रोॅ सेवी’
करी गेलौ कलयुग केॅ तोहें छोॅ फीका
सुहाबौं ललाटोॅ पर विजयी रोॅ टीका
प्रभापूर्ण करलोॅ छी सौंसे जगत केॅ
कनक मेँ मणि कूटी आरो रजत केॅ
कभी की प्रभा ई खतम होतै-जैतै
यही पर चढ़ी फेनू सतयुग नी ऐतै
समाजोॅ रोॅ, सब्भे रोॅ सेवा जे करलौ
बनी केॅ तों विषहर जे विषधर केॅ हरलौ
सिखैलेॅ छौ मानव केॅ मानव रोॅ करतब
वहेॅ देखौ चललोॅ सब आबै छै झब-झब”
बढ़ी रहलोॅ फूलोॅ के बोहोॅ रँ जन छै
शरद-चान हेनोॅ ही गेना मगन छै
बहै छै पवन प्रेम रोॅ मन मेँ हू-हू
उठी गेलै दोनों ही अनचोके बाहू
उड़ी रहलोॅ अम्बर तक फूलोॅ रोॅ रंग छै
अजब आय धरती रोॅ दुल्हन के ढंग छै
खिली गेलै गेना रोॅ सौंसे बदन मेँ
करोड़ों कमल कखनी, केना केॅ क्षण मेँ!
खुली गेलोॅ मुन्हन छै अमरित कलश रोॅ
चलै झटकवा चारो दिश सेँ छै रस रोॅ
कि बरसो नै बरसै है रँ के हद-हद
भिंगी गेलोॅ गेना छै अनहद तांय सरगद
कुहू रोॅ मचै शोर मन रोॅ वनोॅ मेँ
पिकी के, भ्रमर के रव, एक्के क्षणोॅ मेँ
बजाबै छै कौने ई वीणा केॅ गाबी
अभी राग दीपक तेॅ मल्हार आभी?
सुनै, बंद कोषोॅ मेँ भौंरा रँ, गेना
कन्हैया रोॅ वंशी केॅ राधा ही जेनां
दिखाबै छै दुख-दाख कन्हौं नै काँही!
बहारोॅ के सुषमा सब मन के ही छाँहीं!
हरगीतिका छन्द
अजगुत दिरिश सब लोग देखै आय की ई रही-रही
झूमै लता-फल-फूल-कोढ़ी बांही सब रोॅ गही-गही
एक असकललोॅ विरिछ पर अरबौं फुललौ छै फूल-फल
मकरन्द सनलो भौरा लागै, सूर्य। खिललोॅ, नभ, कमल
ढेरे किसिम के नीड़ सेँ शावक चिरै के हेरै छै
बीजू वनोॅ सेँ पी-कहाँ के टेर पपिहो टेरै छै
की रँ उमड़लोॅ खसलोॅ छै ई भीड़ देखबैय्या केरोॅ
गिरि-वन केॅ लाँधी-लाँधी कम्मोॅ छै की लंघबय्या केरोॅ
सधरोॅ सब केॅ भी फानलेॅ नँगचावै जे; ऊ आय की?
देखै जों बाधा-विपद, मारै रोर छै। अनठाय की?
सब डैन-जोगिन देखी ई सब डर्है सें थर-थर करै
कृश काय गेना केरोॅ निरखी लोर आँखी सेँ झरै
लेकिन दुखोॅ रोॅ कोय छाया गेना मुख पर नै दिखै
जेना दिखै छै शांत गेना; भाग सब रोॅ विधि लिखै
सब लोग खाड़ोॅ भक्ति भरी-भरी सब्भे रही-रही जै करै
गेना कहै, ”सब लोग मिली-जुली सृष्टि मंगलमय करै“
गीतिका छन्द
”सब हँसेॅ दुसरौ केॅ हक दौ-खिलखिलाबेॅ, ऊ हँसेॅ
सब हुएॅ ठाढ़ो, जों दुष्टें एक केॅ भूलो डँसेॅ
जे जहाँ छै सब बरोबर; पशु हुएॅ या नर-त्रिया
देवता या दनुज जों कोय छै तेॅ बस लै केॅ क्रिया
”ऊ जे लोभें या डरोॅ सेँ सच नै बोलै, गुम रहै
आकि स्वारथवश ही खल केॅ साथ दै, ओकरे कहै
जे कि समता-समता कही-कही बस विषमता बाँचै छै
जे प्रवंचक, आत्मछलि जे, ऊ की जन केॅ जाँचै छै
”भेद-बुद्धि बढ़ला सेँ छै भेदो, कल्होॅ-कचकचोॅ
तोंय तरत्थी केॅ रँगोॅ आगिन सेँ नै। मेंहदी रचोॅ
स्वर्गो सेँ सुन्नर ीाुवन ई; वेदो तक है गाबै छै
हम्मी नै पुरखौं पुरातन युग सेँ कहलेॅ आबै छै
”आपनोॅ माँटी लेॅ, जन लेॅ, जान-जी सब धूले रँ
एतनै नेँ सौंसे भुवन रोॅ लोग लागेॅ फूलै रँ
आरो जे ससौदा करै ई फूल रोॅ; दुश्मन वही
जे सँहारेॅ हेनोॅ दुश्मन-नर वही, पावन वही
”मनुष सेवा सेँ बढ़ी केॅ धरमो नै, दरशन नै छै
की? कहाँ छै धर्म-दर्शन? देवतौं? जों जन नै छै
आदमी अमृत-विभासुत, देवता कलि कल्प रोॅ
आदमी जागेॅ तेॅ की तक्षक? की गेहुअन? अधसरोॅ?
”आदमी रोॅ मैल धोवेॅ-धरम ई गंगा हुएॅ
ठेलोॅ नै नर केॅ नरक मेँ; स्वर्ग केॅ आबेॅ छुएॅ
आदमी छै पहलेॅ तभिये धर्म रोॅ खाता-बही
जों मनुष हो जाय एक तेॅ धर्म दू रहतै ई की?
”जों मिलै मेँ धर्म बाधा; धरम की? ई जात की?
जे मनुष मानै छै सब मेँ भेद केॅ-ऊ पातकी
देवते नी आदमी रोॅ रूप धरी-धरी आबै छै
आरो नर रोॅ दुश्मनोॅ केॅ देवतौ नै भावै छै
”पाप रोॅ व्यापार-सौदा सब क्षणिक छै, बुलबुला
आदमी छोड़ेॅ नै श्रम केॅ, न्याय छै हाकिम तुला
शुद्ध ज्ञानोॅ सेँ, धरम सेँ, राजा रोॅ चित शुद्ध सेँ
ई सिरिष्टी बनतै फेनू स्वर्ग नानक-बुद्ध सेँ“
ई कही चुप भेलै गेना; स्वर मतुर सगरो फिरै
वायु रोॅ चंचल लहर पर वाणी रोॅ हंसनी तिरै
जेनोॅ कि मणि-खंभ पर माणिक जड़ित, छै सब रोॅ मुख
दुख हटी गेलोॅ छै सबसेॅ भींगै पोरे पोर सुख
सब रोॅ बीचोॅ मेँ होनै केॅ आय गेना शोभै छै
झीर-नद-मंदार, गंग-अजगैवी जेनोॅ भाबै छै।