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बसन्त-11 / नज़ीर अकबराबादी

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चम्पे का इत्र मलकर मौके़<ref>अवसर</ref> से फिर खुशी हो।
सीमी<ref>चांदी जैसी</ref> कलाइयों में, डाले कड़े तिलाई<ref>सोने की</ref>।
बन ठनके इस तरह से, फिर राह ली चमन की।
देखी बहारे गुलशन, बहरे<ref>लिए, वास्ते</ref> तरबफ़िज़ाई<ref>आनन्दमय वातावरण</ref>।

जिस जिस रविश के ऊपर, जाकर हुआ नुमाया<ref>प्रकट</ref>।
किस किस रविश से अपनी आनो अदा दिखाई।
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन चमन में।
वह ज़र्द पोशी<ref>पीले वस्त्र, बसंती आवरण</ref> उसकी वह तजेऱ् दिल रुबाई।
सद बर्ग ने सिफ़त<ref>प्रशंसा</ref> की, नरगिस ने बेतअम्मुल<ref>निःसंकोच</ref>।
लिखने को वस्फ़<ref>विशेषता</ref> उसका, अपनी कलम उठाई।
फिर सहन<ref>आँगन, परिसर</ref> में चमन के, आया बहुस्नो<ref>सौन्दर्यपूर्ण</ref> खू़बी।
और तरफ़ा तर बसंती, एक अंजुमन<ref>सभा, महफिल</ref> बनाई।
उस अंजुमन में बैठा, जब नाजो तमकुनत<ref>गर्व</ref> से।
गुलदस्ता उसके आगे, हंस हंस बसंत लाई।
की मुतरिबों<ref>गायक</ref> ने खु़श हो आग़ाजे<ref>आरम्भ</ref> नग़मा साज़ी<ref>गायन</ref>।
साक़ी ने जाम ज़र्री, भर भर के मै पिलाई।

देख उसको और महफिल, उसकी ”नज़ीर“ हर दम।
क्या-क्या बसंत आकर उस वक़्त जगमगाई॥

शब्दार्थ
<references/>