बसन्त के लिए युद्ध / अनिल जनविजय
मौसम बहुत तल्ख़ है
और लोग सख़्त उदास
उस सन्त की याद में
जो वसन्त चाहता था
अपने साथियों के लिए
सुनहरा वसन्त
वह सन्त यहाँ आया था
बेबाक और छलछलाती हँसी होठों में छिपाए
साहसी और प्यारी आँखों वाला
एक क़द्दावर पेड़
लोगों के बीच उग आया था
उसने उन ख़ामोश आँखों में
बेपनाह तकलीफ़ देखी थी
और सोचा था कि
वह उन क्यारियों में रक्तमुखी फूल उगाएगा
उसने लोगों से कहा था --
सोचो ज़रा !
सबके लिए एक-सा आता है वसन्त
फिर हमारा मौसम
इतना तल्ख़ क्यों होता है ?
प्रार्थनारत जनपद
प्रतिज्ञाबद्ध हुआ था तब
तल्ख़ मौसम से
अन्तिम मुक्ति के लिए
उसने लोगों के सुर्ख़ रक्त में
ईंधन भर दिया था
और वे दहकने लगे थे
सूरज की तरह
अपने सिर हाथों में थामे
सड़कों पर निकल आए थे
दिनानुदिन
फैलने लगा था
सुर्ख़ ख़ून का सैलाब
सारे देश में
उबलते लावे की मानिन्द
यह युद्ध का आदिकरण था
सुनहरे वसन्त के लिए युद्ध
उन्होंने मधुपर्व को चुना था
वसन्त की अन्तिम लड़ाई के लिए
और मधुमक्खियों को
छत्ते में घेरने का निर्णय लिया था
यकायक
युद्ध की तैयारियाँ / धूमधाम
सब कोहराम में बदल गई थीं
कद्दावर सन्त
कटे पेड़-सा गिर पड़ा था
उबलते लावे का उछलता-डोलता सोता
सफ़ेद बुराक़ बर्फ़ में बदल गया था
नदियों के भीगे किनारों पर
श्मशान की आत्मा झुकी हुई थी
घनघना रही थीं घण्टियाँ
ताज़ा बिछी क़ब्र पर
अब
मौसम की तल्ख़ी बहुत बढ़ गई है
और लोग
वसन्त के लिए लड़ाई पर हैं