भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसन्त रो उच्छब / कुंजन आचार्य
Kavita Kosh से
थूं मूळक
अर मूं गीत गाऊं
हथेली पे हरूं उगाऊं।
थारी हंसी
ज्यूं चांदनी चमकै खेत में
चिंता फिकर है उड़न छू
मूं जद सूं थारा हेत में।
पीळी-पीळी हरूं
ठेठ तक दमकं री है
ज्यूं एक पीळी बिन्दी
थारा ललाट पर चमक री है।
दो वसन्त रो उच्छब है।
मन करै रोज थारै सागै
यो उच्छब मनाऊं
थूं मुळक
अर मूंग गीत गाऊं
हथेली पे हरूं उगाऊं।