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बस्तियाँ भी परेशाँ-सी रहती वहाँ / देवी नांगरानी

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बस्तियाँ भी परेशाँ-सी रहती वहाँ
आदमी आदमी से ख़फा है जहाँ

मौत की बात तो बाद की बात है
ज़िन्दगी से अभी तक मिली हूँ कहाँ ?

देर से ही सही दिल समझ तो गया
वक़्त की अहमियत हो रही है जवाँ

भीड़ रिश्तों की चारों तरफ़ है लगी
ख़ाली फिर भी है क्यों मेरे दिल का मकाँ ?

खेलते हैं खुले आम खतरों से जो
हौसलों ही पे उनके टिका है जहाँ

दिल के आकाश में देखा जो दूर तक
कहकशाँ से परे भी थी इक कहकशाँ