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बस्ती के चौराहे पर / परितोष कुमार 'पीयूष'
Kavita Kosh से
कब तक खाती रहोगी
लाठियों की चोट
झेलती रहोगी प्रताड़नाएँ
और बिकती रहोगी
सगे-संबंधियों के बीच
अगर आज फिर चुपचाप
पूर्ववत सहती रहोगी जुल्म
बंधन टूटने के डर से
तो फिर कल तुम्हारे साथ
ठीक वैसा ही होगा
जैसा होता आया है
चुप्पी तोड़ो,
बुलंद करो अपनी आवाज
और उठा लो लाठियां
तुम भी
जवाब दो
तुम्हारे साथ हुए/हो रहे
सारे अन्यायों/जुल्मों का
लाठियों की हर एक चोट का
खूनी पंजों से पनपे घावों का
शरीर पर फटे/फाड़े गये
अपने वस्त्रों का
सूजी हुई अपनी आँखों का
वरना एकदिन
बेच दी जाओगी
अपनों की हाथों
बस्ती के चौराहे पर
मानवी गिद्धों के बीच
या फिर
कर दी जाओगी
तब्दील
राखों की ढेर में