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बस्ते / कुमार अनुपम

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यह बात उन दिनों की नहीं है जब
बस्ते नहीं झोले चलते थे
और पाठशाला जाने से पहले और बाद में
पिताजी के साथ-साथ हाट तक जाते थे
घर के जरूरी सामान
झोले में झूलते उछलते
पिताजी का हाथ थामे घर आते थे
हालाँकि तब पिताजी भी ‘पिताजी’ नहीं थे
और उनके छोटे-से हाथ और दिमाग का दायरा
झोले ही बढ़ाते थे
 
यह बात उन दिनों की तो बिलकुल नहीं है जब
झोले ही बस्ते थे
या कहें कि बस्ते ही झोले
 
यह बात है उन दिनों की जब मैं गबद्दू
आधुनिक सोच के तमाम साधनों के बावजूद समझ नहीं पाया
कि समय के साथ-साथ
चीजों का रूप और नाम और बदल जाता है चरित्र भी
 
मैंने तो बस काम का ध्यान धर
उस दिन पुकार लिया था
‘बस्ते’ को ‘झोला’
बस्स... जो कहकहा लगाया
चीजों के कमजोर पहचानबोध पर मेरे मित्रों ने
मेरे कानों को वह किसी दीमक-सा चालता है अब तक
 
और सच ही तो है
झोले-झोले होते हैं
और बस्ते-बस्ते
 
सिर्फ कॉपी-किताब और आँकड़ों का शो-केश
होते हैं बस्ते
साग-सब्जी और सामान थोड़े न ढोते हैं।