भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहरापन-5 / ऋषभ देव शर्मा
Kavita Kosh से
धूल, धुआँ, गुब्बार,
तेज़ाब ही तेज़ाब,
रेडियोधर्मी विकिरण -
तपता हुआ
ब्रह्माण्ड का गोला;
फटने लगे हैं
अंतरिक्ष के कानों के परदे,
चीख़ती है निर्वसना प्रकृति
......और......
दिशाएँ बहरी हैं !