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बहरा / समृद्धि मनचन्दा
Kavita Kosh से
बहत्तर गूँगी कविताएँ
मेरे कण्ठ में मकड़जाल बना
उल्टी लटकी हैं
अन्दर इतने सनाट्टे के बावजूद
मेरी भाषा का
एक-एक शब्द बड़बोला है
इतना कुछ कह सकने के बाद भी
हम समझ नहीं पाते
समझा नहीं पाते
अपनी आँखों की तोतली बोलियों से
जस-तस कर अर्थ जुगाड़ते हैं
सच ! हम बहरे हो चुके लोग चीख़ते बहुत हैं !