बहरूपिया / अनुपम कुमार
मैं बहरूपिया हूँ
कई रूप है मेरे
हाँ! मैं बहरूपिया हूँ
मैं बहैरू ‘पिया’ हूँ
शादीशुदा हूँ
तो थोड़ा सा बहरा भी हूँ
बीवी की हर मांग सुन नहीं पाता
इसलिए बहैरू ‘पिया’ हूँ
मैं बह ‘रूपया’ हूँ
बाल-बच्चेदार हूँ
शौक़ न सही ज़रुरत पे उनके
थोडा सा रूपया बहाता भी हूँ
सो मैं बह ‘रूपया’ हूँ
मैं बहु ‘रूपिया’ हूँ
नौकरीशुदा हूँ
तो कई रूप हैं मेरे
मैं मालिक से कम
नौकर से ज़्यादा हूँ
कभी ऊंट घोड़ा हाथी
तो कभी पिद्दी प्यादा हूँ
मैं अपने रूप में नहीं हूँ
ग़लत हूँ या फिर सही हूँ
रूप बदलने की मेरी मज़बूरी है
ये मेरे लिये ज़रा ज़रूरी है
अपने असल रूप में मैं आ नहीं सकता
बाल-बच्चों को कटोरा थमा नहीं सकता
सरकार समाज और समय की ज़ोराज़ोरी है
लगता विधाता भाग्य जीवन की हेराफ़ेरी है
बहते-बहते समय के साथ बह गया हूँ
रूप कई ढो-ढो के अब ढह गया हूँ
आफ़त ये कि अब भी कोई पहचानता नहीं
बहरूपिया ही हूँ मैं पर कोई मानता ही नहीं