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बहार आई गुल-अफ़्शानियों के / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
Kavita Kosh से
बहार आई गुल-अफ़्शानियों के दिन आए
उठाओ साज़ ग़ज़ल-ख़्वानियों के दिन आए
निगाह-ए-शौक़ की गुस्ताख़ियों का दौर आया
दिल-ए-ख़राब की नादानियों के दिन आए
निगाह-ए-हुस्न ख़रीदारियों पे माइल है
मता-ए-शौक़ की अरज़ानियों के दिन आए
मिजाज़-ए-अक़्ल की ना-साज़ियों का मौसम है
जुनूँ की सिलसिला-जम्बानियों के दिन आए
सरों ने दावत-ए-आशुफ़्तगी का क़सद किया
दिलों में दर्द की मेहमानियों के दिन आए
चराग़-ए-लाल-ओ-गुल की टपक पड़ी हैं लवें
चमन में फिर शरर-अफ़्शानियों के दिन आए
बहार बाइस-ए-जमईयत-ए-चमन न हुई
शमीम-ए-गुल की परेशानियों के दिन आए
उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'
हमारी बे-सर-ओ-सामानियों के दिन आए