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बहुत करीब न आना कि फिर न पछताना / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

बहुत करीब न आना कि फिर न पछताना
वहीं तलक है ख़ुशी जब तलक न पहचाना

वो एक राह जहाँ भीड़ है क़यामत की
ख़बर किसी को नहीं है कि है कहाँ जाना

ये जी रहे हैं फ़ज़ाओं में रंग-ओ-बू के लिए
गुलों को फ़िक्र नहीं एक दिन है मुरझाना

खड़े हैं लोग किनारों पे यूँ तो मुद्दत से
नदी को पार करेगा तो कोई दीवाना

गुमान में है अभी तक तो ज़िन्दगी का सफ़र
समझ किसी को जो आए मुझे भी समझाना

वहाँ गए तो बुज़ुर्गों की बात याद आई
ज़रा ख़याल में रखना शऊर-ए-मैख़ाना

मैं हर किसी की कसौटी पे क्या खरा उतरूँ
हर एक शख़्स का अपना ही अपना पैमाना

अभी तलक भी उसे ख़ुशख़यालियाँ हैं बहुत
कहीं मिले जो वो ‘परवेज़’ तो बचा लाना