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बहुत कुछ वस्ल के इमकान होते / ज़हीर रहमती
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बहुत कुछ वस्ल के इमकान होते
शरारत करते हम शैतान होते
सिमट आई है इक कमरे में दुनिया
तो बच्चे किस तरह नादान होते
किसी दिन उक़दा-ए-मुश्किल भी खुलता
कभी हम पर भी तुम आसान होते
ख़ता से मुँह छुपाए फिर रहे हैं
फ़रिश्ते बन गए इंसान होते
हर इक दम जाँ निकाली जा रही है
हम इक दम से कहाँ बे-जान होते