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बहुत चाहा कि आ जाए सलीका, पर नहीं आता / अशोक रावत

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बहुत चाहा कि आ जाए सलीका, पर नहीं आता,
नहीं आता अगर जीना तो जीवन भर नहीं आता,

बहुत बेचैन करती है ये आदत चोट खाने की,
दरख़्तों की तरफ कोई अगर पत्थर नहीं आता.

कहाँ इन ख़ंजरों के ख़ौफ़ में कोई कमी आई,
भले ही हेड लाइन में कोई ख़ंजर नहीं आता.

जमा होते रहेंगे आसमाँ पर गर्द के बादल,
अगर रुख में हवाओं के कोई अंतर नहीं आता.

हमेशा प्यास ही चलकर, कुएँ तक ख़ुद पहुँचती है,
कभी प्यासे की देहरी तक कुआँ चल कर नहीं आता.

तेरे एहसास तक मेरी सदाओं की पहुँच तो है,
मुझे भी क्यों शिकायत हो अगर उत्तर नहीं आता.