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बहुत दिनों से इस मौसम को / जयकृष्ण राय तुषार
Kavita Kosh से
बहुत दिनों से
इस मौसम को
बदल रहे हैं लोग ।
अलग-अलग
खेमों में बँटकर
निकल रहे हैं लोग ।
हम दुनिया को
बदल रहे पर
ख़ुद को नहीं बदलते,
अन्धे की
लाठी लेकर के
चौरस्तों पर चलते,
बिना आग के
अदहन जैसे
उबल रहे हैं लोग ।
धूप, कुहासा,
ओले, पत्थर
सब जैसे के तैसे,
दुनिया पहुँची
अन्तरिक्ष में
हम आदिम युग जैसे,
नासमझी में
जुगनू लेकर
उछल रहे हैं लोग ।
गाँव सभा की
दूध, मलाई
परधानों के हिस्से,
भोले भूखे
बच्चे सोते
सुन परियों के क़िस्से,
ईर्ष्याओं की
नम काई पर
फिसल रहे हैं लोग ।
हिंसा, दंगे
राहजनी में
उलझी है आबादी,
कितनी क़समें
कितने वादे
सुधर न पाई खादी,
नागफ़नी वाली
सड़कों पर
टहल रहे हैं लोग ।