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बहुत दिनों से / नवल शुक्ल
Kavita Kosh से
वह बहुत दिनों से प्रेम नहीं कर पा रही थी
मैं बहुत दिनों से झगड़ नहीं पा रहा था
मै बहुत दिनों से प्रेम करना चाहता था
वह बहुत दिनों से झगड़ना चाहती थी
इन दिनों हमारे लिए सबकी कमी का
रोज़ ध्यान आता था
आकांक्षाएँ हमारे चाहने पर भी नहीं मिलती थीं।
हम इतने शिथिल और सुस्त थे कि
थामे हुए एक कमज़ोर धागे को, देखते
अपने-अपने सिर पर बचे, झूलते खड़े थे।
दिनों-दिन बड़े होते शहर
और छोटे होते घर में
न रोते, न हँसते
आँखें खोले
सुबह के स्वप्न की तरह थे दुनिया को देखते।