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बहुत बादल बरसे / नीना कुमार

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बरसे हैं बहुत हम पर, हैं यूँ मुसलसल<ref>लगातार</ref> बरसे
आज अपने शहर में भी, हैं बहुत बादल बरसे

क्यों न फिर खामोश ज़हन के फैले बियाबाँ में
शोर उठे, कोई घटा छाये, कोई हलचल बरसे

जो तलातुम<ref>तूफ़ान</ref>-ए-जज़्बात रहा घूम फ़लक<ref>आकाश</ref> पर
राह तक रहा है- के आज या फिर कल बरसे

और जो बर्फ से हो गए थे नमनाक<ref>आंसू-भरे</ref> से एहसास
शोला-ए-बर्क़<ref>बिजली</ref> के संग मिल कर के पिघल बरसे

काबिल-ए-बयाँ नहीं थे वो जो ख़्वाब निहाँ<ref>छिपे हुए</ref> थे
शोर-ओ-पैहम<ref>लगातार शोर में</ref> में, आब-जू<ref>नदी</ref> बनके निकल बरसे

कभी माहताब<ref>चांद</ref> सा चमक जाता, सैलाब-ए-अब्र<ref>बादलों की बाढ़</ref>
जैसे बोलती आँखों में से, है खामोश ग़ज़ल बरसे

शब्दार्थ
<references/>