भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत बीमार युग बेचैन इसकी ज़िंदगी है / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बीमार युग बेचैन इसकी ज़िंदगी है
विषैली दौर में दम तोड़ती जिं़दा दिली है

लबों के साथ लिपटी इस हंसी का राज़ है कुछ
तुम्हारे वास्ते केवल गुलों की पांखुड़ी है

समय का कृष्ण भी है व्यस्त नाना उलझनों में
खड़ी बे आबरू अब जिं़दगी की द्रोपदी है

डुबों कर खून में उंगली किताबें दिल में मैंने
गुलों के चाक दामन की कथा रो-रो लिखी है

ज़माना दे रहा दस्तक मैं कैसे तोड़ आऊँ
मिरे पांवों में जंज़ीरें हैं कैसी बेबसी है

गमें दौरा में फुर्सत हो तो दो आंसू बहायें
दिमागों में, दिलों में, आज तो हलचल मची है

अना के पाक दामन पर कोई धब्बा न आये
बतायें क्या तुम्हें उर्मिल कठिन कैसी घड़ी है।