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बहु-जन्मदिन से गुँथे मेरे इस जीवन में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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बहु-जन्मदिन से गुँथे मेरे इस जीवन में
अपने को देखा मैंने विचित्र रूप समावेश में।
एक दिन ‘नूतन वर्ष’ अतलान्त समुद्र की गोद में
घर लाया था मुझे यहाँ,
तरंगों के विस्तृत प्रलाप में दिग् से दिगान्तर में जहाँ
शून्य नीलिमा पर शून्य नीलिमा ने आ
तट को किया था अस्वीकार।
उस दिन देखी थी छवि अविचित्र धरणी की -
सृष्टि के प्रथम रेखा पात में
जल मग्न भविष्यत् जब
प्रतिदिन सूर्योदय पान में
करता था अपना सन्धान।
प्राणों के रहस्य आवरण
तंरगों की यवनिका पर
दृष्टि ढाल सोचने लगा मैं,
अभी तक खुला नहीं मेरा जीवन आवरण
सम्पूर्ण जो मैं हूं
वह तो अगोचर ही रह गया गोपन में।
नये-नये जन्मदिनों पर
जो रेखाएँ पड़ती हैं शिल्पी की तूलिका की
उसमें तो लिखा नहीं
मेरी छवि का चरम परिचय।
केवल करता हूं अनुभव मैं,
चारों ओर अव्यक्त विराट प्लावन
वेष्टित किये हुए है दिवस और रात्रि को।

‘उदयन’
सायाह्न: 20 फरवरी, 1941