बहो, अब ऐ हवा! ऐसे कि ये मौसम सुलग उट्ठे / गौतम राजरिशी
बहो, अब ऐ हवा! ऐसे कि ये मौसम सुलग उट्ठे
जमीं और आस्माँ वाला हर इक परचम सुलग उट्ठे
सुलग उट्ठे ज़रा-सा और ये, कुछ और ये सूरज
सितारों की धधक में चाँदनी पूनम सुलग उट्ठे
लगाओ आग अब बरसात की बूंदों में थोड़ी-सी
जलाओ रात की परतें, ज़रा शबनम सुलग उट्ठे
उतर आओ हिमालय से पिघल कर बर्फ ऐ ! सारी
मचे तूफ़ान यूँ गंगो-जमन, झेलम सुलग उट्ठे
झिझोड़ो सब को, गहरी नींद में सोये हुये हैं जो
कि अलसाया हुआ मदहोश ये आलम सुलग उट्ठे
हटा दो पट्टियाँ सारी, सभी ज़ख़्मों को रिसने दो
कुरेदो टीस को इतना कि अब मरहम सुलग उट्ठे
मचलने दो धुनों को कुछ, कसो हर तार थोड़ा और
सुने जो चीख़ हर आलाप की, सरगम सुलग उट्ठे
मचाओ शोर ऐ ख़ामोश बरगद की भली शाखों
है बैठा ध्यान में जो लीन, वो 'गौतम' सुलग उट्ठे