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बह रहीं संवेदनाएँ / नीता पोरवाल

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वो देखो
बह रहीं संवेदनाएँ सतह पर
कागज़ की कश्तियों सी
उथली- उथली
धुंध ही धुंध छाई है
हर ओर बेचैनियों की
कहीं बंद दरीचों में
मज़मे लगे हैं ख्वाइशों के
खुमार तारी है कहीं शोहरतों का
पर जरा देखो उधर
तालियों के शोर में
धुंधले इन गलियारों में
बचपन है कि
गुम हुआ जाता हैं कहीं
और उस पर
पीठ से ज्यादा
बोझा लिए ज़ेहन पर
भला थकेंगे पाँव इनके या
तवील ऐसी सर्द रातों में
पहले सुन्न होगा ज़ेहन इनका?
रौशनियाँ
झूलती हैं ज़मीं से
कहीं उपर
ऊँची मेहराबों पर
बेपरवाह
अपने आँगन के अंधेरों से
फिर भी
तमन्नाएँ हैं कि
सिर्फ़ खुद से बाबस्ता