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बाँधा कितना निकट / कविता वाचक्नवी

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बाँधा कितना निकट


बाँधा कितना निकट
नहीं पर साथ
तले जो
मन-मंडप के
दिवस औ’ रात
सदा
शोभित रहते हैं।
भर-भर
कितना
अंतर्मन
मथ-मथ कर
अंतस्‌
काटेंगे
निज-पल
निशि-नींदें
दिवा-रात्रि
पी-पी
गरलामृत
रहें सचेतन
करुणाश्रित
परिवर्तन।

परम
गति-प्रतीक
चिंतानल
कर समक्ष
वह अग्नि-शिखा
उन्मुक्त
बँधी
नद-धार
एकाकी क्षण के
हत-उत्तरीय से।
चटकी
घन-उर में
तड़ित
साँझ के सूनेपन में,
बरसी
कानन में फुहार,
गिरि-शिखरों के
साथी गह्वर में।
पाषाणों पर पड़ती
बूँदें
उमड़ें
छलकें,
मन-मसोस बैठे
केंद्रित
तन्मय हो।
देखें
बंधन की पिपास के
नव-नित सर्जन।
आर्द्र कंठ में
प्यास जगाई
पीड़ानल ने,
पलक मूँद,
काजल पीते हैं
रस-निर्झर का
विरस क्षणों में।