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बाँसुरी कौन सुने / पंकज परिमल
Kavita Kosh से
यहाँ ढोल सुनते हैं
लोग,
बाँसुरी कौन सुने !
बस, धमक-धमक
या मारपीट के हैं वर्णन ।
बस, हाहाकार,
गात के आवेशित कम्पन ।।
चुनने का समय नहीं
झरते गुलाब की पंखुरियाँ
परियों से उड़ते
कौन आक के बीज चुने! !
गौ रंभाती कातर,
इसकी चर्चाएँ हैं ।
जो चिंहुक सका ना,
उसकी क्या विपदाएँ हैं ।।
जनपथ को आदत लगी
राजपथ वाली फिर,
अब वही राह है
जिस पर चल दें चार जने ।।
क़द से ज़्यादा है
आदम की भी परछाई।
छाया से भी लम्बी
आँतों की लम्बाई ।।
आँतों की भूलभुलैया में
ख़ुशियाँ भूलीं
अब चने-चबैने नहीं,
बजे
खोखले चने ।।