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बाँहें / मुदित श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मन के भीतर सूखा पड़ा है
बाहर हो रही है बारिश
गले से लगना चाहता हूँ बारिश के
लेकिन उसकी बाँहें नहीं ढूँढ पाता
तुम भी तो जीवन में
बारिश की तरह आयी हो
सोचता हूँ तुम्हें गले से लगा लूँ
और बारिश से कहूँ-
'बरसती रहो'