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बाँह पसारे खड़ा था आकाश / माया मृग
Kavita Kosh से
बाँह पसारे
खड़ा था-आकाश
सिहरता-ठिठुरता
निहारता एकटक।
रह-रहकर
उथल रहा था सागर
फेन उगलता-
हिलोरें लेता
उमड़ता सतत।
तब-
उस दिन
हम चल रहे थे
साथ-साथ
पपड़ाये होठों को
थोड़ा-थोड़ा खोलती
निःशब्द बोलती
ज़मीन पर।
तुमने
उन्हें देखा
मैंने-
तुम्हें देखा।
तुम चुपा गये।
फिर-
हौले से पूछा-
तुमने क्या मांगा ?
तुमने क्या चाहा ?
मैं क्या कता-
मैंने क्या मांगा ?
मैंने क्या चाहा ?
बाँह पसारे-
खड़ा था आकाश
रह-रहकर उथल रहा था सागर
निःशब्द बोलती ज़मीन पर
हम चल रहे थे
साथ-साथ ...!