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बागमती / सुकान्त सोम

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अहाँक स्पर्शसँ एकबैग कतेक रोमांचित भ’ गेल छी
पुलकित भ’ गेल छी हठात् !

जहिया प्रतिवेशी रही, अहाँक संग
हमर किशोक-मनक क्रीड़ा प्रवादक रूप धएने रहए
राति-दिनुकाक संगमे समय बितैत छल
तहियो एना कहाँ अनुभव कएने रही
आ आइ दिल्ली, मास्को, पेकिंग, वाशिंगटन
कश्मीर, नागालैंड, आन्ध्र आ तमिलनाडुक बीच
पोथी-पतरा आ अखबार-पत्रिकाक बीच
अहाँक स्पर्श एकबैग स्नायुतंत्रकें बान्हि देलकए

अहाँ एना नीरव किए छी बागमती !
कतेक क्षीणकाय, कतेक श्लथ !
क्यो बुझियो ने पाओत, अहाँ छी किंवा नहि
के कहत अहाँ उत्फाल मचबैत रही, आ आब
एना जमकल किए जा रहल छी, बागमती !
हम एकबेर फेर किशोर भ’ गेल छी
आ ने एक बेर फेर प्रवाद बनबाक प्रयासमे
हमरा लोकनि अपन सभटा काजकें स्थगित राखी
हे हमर अंतरंग, आधार हमर !
हमरा लेल त’ अहाँ अपरिहार्य भ’ गेल छी
एना श्लथ नहि होइ
एना मान नहि करी बागमती !