भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाग़ पाकर ख़फ़कानी ये डराता है मुझे / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी<ref>पागलपन का रोगी</ref>, ये डराता है मुझे
साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई<ref>साँप</ref> नज़र आता है मुझे

जौहर-ए-तेग़<ref>तलवार की चमक</ref> ब-सर-चश्मा-ए-दीगर<ref>झरने का तट जैसा</ref> मालूम
हूं मैं वह सब्ज़ा<ref>हरियाली</ref> कि ज़हराब<ref>ज़हरीला पानी</ref> उगाता है मुझे

मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकसत-ए-दिल<ref>टूटते दिल का तमाशा देखने में लीन</ref> है
आईनाख़ाने में कोई लिये जाता है मुझे

नाला<ref>विलाप</ref> सरमाया-ए-यक-आ़लम-ओ-आ़लम<ref>सारी दुनिया के गुण और दुनिया</ref> कफ़-ए-ख़ाक<ref>मुठ्ठी भर राख़</ref>
आसमां बेज़ा-ए-क़ुमरी<ref>सफेद कबूतरी का अंडा</ref> नज़र आता है मुझे

ज़िन्दगी में तो वह महफ़िल से उठा देते थे
देखूं, अब मर गए पर, कौन उठाता है मुझे

शब्दार्थ
<references/>