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बाग़ वही, बुलबुल भी वही मगर फ़साना बदल गया / डी. एम. मिश्र
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बाग़ वही, बुलबुल भी वही मगर अफ़साना बदल गया
यार पुराना नये ज़माने से भी आगे निकल गया।
दुनिया की तस्वीर बदलनें बड़े जुनूँ से निकला था
सीधा कुएँ में गिरता ये तो ठोकर खाकर सँभल गया।
मन में जितने भी गुबार हों सब मौसम के नाम करो
ठंडी-ठंडी हवा चली है पत्ता-पत्ता बदल गया।
बहुत मनाया मैंने लेकिन नहीं पसीजा पत्थर दिल
अपनी बारी आयी बनकर मोम का पुतला पिघल गया।