बाघबहादुर / अनिल अनलहातु
जीवन की अधखुली आँखों का
उथला स्वप्न,
जो एक धुंध भरे कोहरे से निकल
दूर कहीं
ख़ामोशी के अबूझ कुहासे में
लिपट रहा हो।
और ऐसे में
मस्तिष्क के किसी अज्ञात कोने में
चिलकती हों चिंता की
पारानोइयाँ, चीखती हों
सुदूर खड़े भाप इंजन की
सीटी की तरह।
जब अपने ही बिस्तर पर
पड़ा आदमी
अपने से अनभिज्ञ हो रहा हो,
सब कुछ जैसे एकाएक
एक ही साथ ठहर
गया हो
परम विराम में
फ्रिज़्ड, स्टिल ...जड़,
भयार्त खामोशी, सहमा सन्नाटा
स्तब्ध रोशनी।
कि एकाएक अचानक
फूट पड़ता है कहीं
मानस के किन्हीं भीतरी प्रकोष्ठ में
तेज़ रोशनी का एक धमाका,
सैलाब उमड़ पड़ता है,
और पड़ती है थाप ढोलक पर
फेंकना की उँगलियों की
ढम ...ढमा ...... ढम ...
तेज़ से तेज़ और तेज़ ... तेज़
होती ही जा रही
...
...
न ... न...नहीं
एक झटके में मैं
अपने भीतर से बाहर आता हूँ
और चल पड़ता हूँ
अपनी तलाश में।
जिंदगी की ऊंची–नीची पगडंडियों
खलिहानों से गुजरता
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी
मेडों से होकर
जा पहुंचा वहाँ,
जहां चल रहा
जीवन-अस्मिता
का अंतिम संग्राम।
अपराह्न की बोझिल थकी
तिरछी किरणें,
निर्जन पठार का उदास सूनापन
कस रहा,
सबकुछ बिखरा–बिखरा-सा
छितराया सेमल के रुई की भांति
उफन रहे आदमियों का जनसमुद्र
कि दाखिल होता है "बाघबहादूर"
जीवन अस्मिता के
जंगल में आज।
उँगलियाँ थिरक उठतीं हैं
फेंकना की
और ढोलक की थाप
गूंज उठती है
दूर दूर तक
दूर जंगलों, पहाड़ों, पठारों के
रेतीले वन प्रांतर में।
साँझ से धूमिल पड़ी बस्तियों, गाँवों
झोपड़ियों के गिर्द
कसते सन्नाटे के बीच,
कालाहांडी के इस
निर्जन, जनशून्य
वन–प्रदेश मे,
एक आदमी के होने
उसकी अस्मिता
कि लड़ी जा रही अंतिम लड़ाई.
जहां कोई तुमुल-नाद नहीं,
कोई रणभेरी नहीं,
नगाड़े नहीं, चारण और भाट नहीं,
बस फेंकना है और
फेंकना के ढोलक की थाप है
जो गूँजती ही चली जा रही
वन-प्रांतर, प्रदेशों की सीमाएं लांघते
(क्या क्षितिज तक?)
भुजाएँ फड़क रहीं हैं
ज़िंदगी साँसे थामे खड़ी है
(मौत तो एक वहमों-गुमाँ है)
कि आज तो फैसला होना ही है।
जीवन अस्मिता कि खोज अंतिम
या मृत्यु (का वरण)
व सामने खड़ा है
आदिम बर्बरता
का अंतिम प्रतीक
रेड जगुआर!
अपनी खोई हुई अस्मिता को
तलाशता
अभी पहुंचा ही था,
कि घूमता है समय का
प्रार्थना–चक्र बड़ी तेजी से
वर्तमान की संकरी घूमावदार
गलियों से निकल
जा पहुंचता हूँ
सुदूर अतीत में।
'चिक़ेन–इत्ज़ा' के खंडहरों में,
भग्न आस्थाओं के ध्वंसावशेष
मलबों में,
बिखरे स्मृतियों के ईंट-पत्थरों में
में ढूँढता, कहीं कुछ मिल जाए कहीं
जो जोड़ सके मुझे,
अपनी पहचान दिला सके
कि दिखा मुझको...
वो... उधर... रेड जगुआर.
महान मयन सभ्यता
की उत्कट जिजीविषा का
प्रतीक वह
रेड जगुआर.
कि सुन पड़ती है
अस्पहानी घोड़ो की पदचाप,
सफ़ेद झकझक पंक्तिबद्ध घोड़ों की
प्रचंड हिनहिनाहट और
आदमियों की चित्कार।
जीवन को बचाने की
उसकी यह अंतिम कोशिश
कि यहीं कहीं होगा ज़रूर
बाघ बहादूर।
कि चल रहा हो जहां कहीं
जीवन को बचाने का संघर्ष
कि वहीं मिलेगा, मिलेगा वहीं
एक पौराणिक गाथा बन
लोगों के अवचेतन मे
बाघबहादूर, बाघबहादूर ...
कि दिखा मुझको
निकल चिक़ेन–इत्ज़ा के खंडहरों से
मन-प्रदेश के बीहड़ जंगलों में
घूमता,
बैठा कहीं, जीवन संध्या के
गमगीन मटमैले में,
नदी के कछार पर,
कि संध्या-बाती करने आती
औरतों के उदास गीतों में
गाथा बन, प्रतीक बन
एक मिथ हो गया है
बाघबहादूर।
जब दुःस्वप्नों का पहाड़-सा टनों बोझ
छाती को दरकाता है,
चिलकाता है,
जब अपने को ही खोजता
भटकता जाता हूँ मैं,
साँची-भरहुत के स्तूपों से
अमरावती तक,
चिल्ला ही पड़ता हूँ
एकबारगी तब,
बड़े ज़ोर से
बाघबहादुर...हो... बाघबहादूर...
कहाँ हो तुम बाघबहादूर?
संध्या ढल चुकी है,
मौत का स्याह-सन्नाटा
व्याप रहा है / बिचर रहा है हौले-हौले।
खून की एक मोटी धार
बर्बर पाशविकता के पंजों के पास से
बहती जा रही है
नीचे पठारी ढलानों पर...
बाघबहादूर मरा पड़ा है।
इस निर्जन
जनशून्य टीले पर,
और फेंकना की अंगुलियों की थाप
पड़ रही है
ढोलक पर लगातार,
एक विचित्र उन्माद में है
फेंकना आज।
आँखों में ललाई छाई हुई
ढम ढमा ...ढम... ढम... ढम...ढम...ढम ...
अंगुलियों की थाप
पड़ती ही जा रही है
पड़ती ही जा रही
...
ढोलक पर
आज फेंकना नहीं रुकेगा।
लोग बाग निकल पड़े हैं
अपने–अपने घरों से,
फेंकना आज नहीं रुकेगा
न रुकेगा
गूँजती ही जा रही है
उसके ढोलक की थाप निरंतर
गलियों, खेतों-खलिहानों,
गांवों को पार करती हुई
नदी–नालों, नगरों से
होती हुई ...
देश और महादेश की सीमाओं का
अतिक्रमण करती
...
आदमी और पशुता की
इस लड़ाई में
क्या बाघबहादूर हार गया?
क्या सचमुच?