मेरठ के फिरक़ावाराना फ़साद के पसमंज़र में
बाज़ार में क़त्लो-ग़ारत का सामान रहा और ख़ूब रहा ।
हर शख़्स के पहलू में उसका भगवान रहा और ख़ूब रहा ।।
इंसान का लेकर नाम वहां ख़ूंख़्वार दरिन्दे लड़ते थे
बस्ती का वो जंगल देर तलक गुंजान रहा और ख़ूब रहा ।
सुनते थे कि है इंसाफ़ यहाँ सुनते थे कि है इंसाफ़ वहाँ
इस जिंस का मिट जाना कितना आसान रहा और ख़ूब रहा ।
इंसां के लहू से इंसां ने क़श्क़ा खेंचा पेशानी पर
यूं आपसी भाईचारे का एलान रहा और ख़ूब रहा ।
उस रात नगर की हर झुग्गी शोलों से चराग़ां होती थी
महफ़ूज़ मगर ज़रदारों का एवान रहा और ख़ूब रहा ।
दोनों में तआवुन है कोई नाचीज़ का ये दावा तो नहीं
कुछ रोज़ खुदाई का मालिक शैतान रहा और ख़ूब रहा ।
बाज़ू में ज़रा क़ूवत भी न थी आवाज़ में कुछ ताक़त भी न थी
पर सोज़ का दिल एक अरसे तक हलकान रहा और ख़ूब रहा ।।
1 अगस्त 1987