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बाज़ार / प्रेमनन्दन

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बाज़ार भरा है
खचाखच सामानों से
मन भरा है
उन सबको ख़रीदने-समेटने के
अरमानों से
एक ख़रीदता
दूसरी छूट जाती
दूसरी ख़रीदता
तीसरे की कमी खलती
इस तरह
ख़त्म हो जाते हैं
पास के सारे पैसे
पर इच्छाएॅ अधूरी ही रह जातीं,

मन के किसी कोने में
कुण्डली मारे बैठा
अतृप्ति का कीड़ा
भूखा है अब भी ।

अजीब -सा रीतापन
कचोटता रहता मन को
ख़रीद कर लाई गई सभी इच्छाएँ
लगने लगती तुच्छ
रख देता उन्हें अनमने मन से
घर के एक कोने में ।

अगली सुबह फिर जा पहुँचता
सामान से लबालब भरे बाज़ार में
फिर ख़रीदता
कल की छूटी हुई इच्छाएँ
फिर भी रह जातीं
कुछ अधूरी इच्छाएँ
जिन्हें नहीं ख़रीद पाता।

अधूरी इच्छाओं की अतृप्ति
नहीं भोगने देती
पहले की ख़रीदी हुई
किसी भी वस्तु का सुख !