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बाज़ार / मनोज चौहान

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बाजार आखिर क्या है
इंसानी जरूरतों को
पूरा करने के लिए इजाद की गई
एक प्राचीन व्यवस्था
मोल – भाव करते इंसानों का जमघट
या फिर किसी गरीब बच्चे की
न पूरा होने वाली इच्छाओं को
चिड़ा देने वाला सम्मोहन ?

एक अमीर के लिए
सुख - सुविधाओं के साधन
जुटाने की जगह
और एक गरीब के लिए
चार निवाले भर
कमा लेने की कशमकश l

यह हर आदमी के लिए
अलग अर्थ लिए हुए है
हर रोज खुलता है बाजार
और शाम को बंद होते - 2
छोड़ जाता है कई सवाल l

उस बड़े दूकानदार के लिए
जिसे मुनाफा तो हुआ मगर
पिछले कल जितना नहीं
एक मध्यम बर्गीय गृहणी के लिए
जो खींच लाई है बिलखते बच्चे को
खिलौनों की दुकान से
मात्र दाम पूछकर ही
इस बहाने से
कि अच्छा नहीं है वह खिलौना
और गरीब भोलू के लिए भी
जिसकी रेहड़ी से नहीं बिका है आज
एक भी हस्त-निर्मित सजावटी शो-पीस l

अपने – 2 सवालों के चक्रव्यूह में
अभिमन्यु सा फंसते जा रहे हैं
वह बड़ा दुकानदार
मध्यम बर्गीय गृहणी
और गरीब भोलू भी l

कल फिर खुलेगा बाज़ार
मगर क्या भेद सकेंगे वे सब
निज सवालों के चक्रव्यूह को ?