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बाजार में प्रेम / विमल कुमार

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अगर मिल जाता मुझे
कहीं और निर्मल प्रेम
तो फिर क्यों आता तुम्हारे द्वार
क्यों खटखटाता तुम्हारी किवाड़
क्यों फैलाता अपनी झोली दरगाह पर
फ़कीरों-सा
आसमान की तरफ अपना मुँह
करता याचना
गिड़गिड़ाता ।
अगर मिल जाती मुझे वह रोशनी
जो तुम्हारे लालटेन से छनकर आ रही है
क्यों ढूँढ़ता अपने लिए मैं वह प्रकाश
नहीं देखता तुम्हारे दर्पण में
अपना चेहरा
अगर मैं देख लेता अँजुरी भर पानी में
अपना मुखड़ा किसी दिन
तुम्हारी आवाज में नहीं खोजता
मैं अपनी कोई आवाज़
तुम्हारे सितार पर नहीं बजाता
अपना कोई राग
तुम्हारी बाँसुरी मैं क्यों फूँकता अपनी हवा
क्यों तुम्हारी डायरी में
चाहता दर्ज़ करना अपना बयान ।
तुम्हारे दर्द में अपना दर्द
तुम्हारे सुख में अपना सुख
ढूँढ़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती मुझे ।
जानता हूँ अब असली चीज़ें नहीं मिलती बाज़ार में
चाँदनी चौक से करोलबाग तक
नकली चीज़ों से अंटी पड़ी हैं दुकानें
नकली लोग
नकली दोस्ती
नकली आत्मीयता
और यह प्रेम भी
निकला अगर नकली !
तो होगी कितनी तकलीफ़ मुझे

इसलिए आया हूँ
आज फिर वर्षों बाद तुम्हारे द्वार
मिल जाए कहीं
कोई प्यार
जिसे मैं कह सकूँ
तमाम नकली चीज़ों के बीच
यही असली चीज़
जिसे मैं ढूँढ़ता फिर रहा था
वर्षों अपने जीवन में
न जाने कहाँ-कहाँ
भटकता ।