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बात करता है इतने अहंकार की / ज्ञान प्रकाश विवेक

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बात करता है इतने अहंकार की
जैसे बस्ती का हो वो कोई चौधरी

मौत के सायबाँ से गुज़रते हुए
वो पुकारा बहुत— ज़िंदगी-ज़िंदगी !!

कैनवस पे वो दरिया बनाता रहा
उसको बेचैन करती रही तिश्नगी

उसकी आँखों में ख़ुशियों के त्यौहार थे
उसके हाथों में थी एक गुड़ की डली

क़र्ज़ के वास्ते हाथ रक्खे रहन
इक जुलाहे की देखो तो बेचारगी

मेरे अश्कों की वो भाप थी दोस्तो
एक ‘ एंटीक ’ की तरह बिकती रही