बात की करामात / हरिऔध
क्या अजब मुँह सी गया उनका अगर।
टकटकी बाँधे हुए जो थे खड़े।
जब बरौनी से तुझे सूई मिली।
आँख तुझ में जब रहे डोरे पड़े।
थिर नहीं होतीं थिरकती हैं बहुत।
हैं थिरकने में गतों को जाँचती।
काठ का पुतला ललकतों को बना।
आँख तेरी पुतलियाँ हैं नाचती।
खोलते ही खोलने वाले रहे।
भेद उस के पर न खोले से खुले।
तोल करके मान मन कितना गया।
पर न तोले आँख तेरे तिल तुले।
है न गहरी हुई बहुत लाली।
है न उस में मजीठ बूँद चुई।
खीझ से बूझ का लहू करके।
आँख तू है लहूलुहान हुई।
हम बतायें तो बतायें किस तरह।
तू न जाने कौन मद में है सना।
कान कितने झूमते हैं आज भी।
देख तेरे झूमकों का झूमना।
तब निकलता न किस लिए सूरज।
जब ललाई लिये फटी पौ थी।
कान पाता न क्यों तरौना तब।
जब ललकती छिदी हुई लौ थी।
होठ औ दाँत मिस समय पा कर।
मुँह लगे फल भले बुरे पाने।
है अगर फल कहीं इनारू का।
तो कहीं हैं अनार के दाने।
बोल बोल अमोल, फूल झड़े।
चाँदनी को किये हँसी से सर।
लग गये चार चाँद जिस मुँह को।
हम उसे चाँद सा कहें क्यों कर।
एक तिल फूल एक दुपहरिया।
दो कमल और दो गुलाब बड़े।
भूल है फूल मिल गये इतने।
फूल मुँह से किसी अगर न झड़े।
बोलने आदि के बड़े आले।
सब निराले कमाल तुम जैसे।
मिल किसी काल में उसे न सके।
मुँह तुम्हें हम कमल कहें कैसे।
सब दिनों साथ एक सूगे के।
दो ममोले हिले मिले देखे।
मुँह तुम्हारे कमाल के बल से।
चाँद में दो कमल खिले देखे।
नाचती मछलियाँ, हरिन भोले।
हो ममोले कभी बना लेते।
मुँह कभी निज अजीब आँखों को।
कर कमल, हो कमाल कर देते।
है कहीं बाल औ कहीं आँसू।
और मुँह में कहीं हँसी का थल।
है कहीं मेघ औ कहीं बिजली।
औ कहीं पर बरस रहा है जल।
क्यों न मुँह को चाँद जैसा ही कहें।
पर भरम तो आज भी छूटा नहीं।
चाँद टूटा ही किया सब दिन, मगर।
टूट कर भी मुँह कभी टूटा नहीं।
हैं बनाते निरोग काया को।
काम के रंग ढंग बीच ढले।
हैं बहुत ही लुभावने होते।
दाँत सुथरे धुले भले उजले।
तुम कभी अनमोल मोती बन गये।
औ कभी हीरे बने दिखला दमक।
दाँत हैं चालाकियाँ तुम में न कम।
चौंकता हूँ देख चौके की चमक।
मिल न रंगीनियाँ सकीं उस को।
पास उस के हँसी नहीं होती।
देख करके बहार दाँतों की।
हार कैसे न मानता मोती।
साँझ के लाल लाल बादल में।
है दिखाती कमाल चन्दकला।
या बही लाल पर अमीधारा।
या हँसी होठ पर पड़ी दिखला।
लोग चाहे कौंध बिजली की कहें।
या अमीधारा कहें रस में सनी।
पर कहेंगे हम बड़े ही चाव से।
है हँसी मुखचन्द की ही चाँदनी।
है सहेली खिले हुए दिल की।
फूल पर है सनेह-धार लसी।
है लहर रसभरे उमंगों की।
चाँदनी है हुलास चन्द हँसी।
जब हँसी तुझ से हुई आँखें खुली।
देख तुझ को साँसतें वे जब सहें।
सूझ वाले तब न तुझ को किस तरह।
चाँदनी औ कौंध बिजली की कहें।
नास कर देती अगर सुध बुध रही।
किस तरह तो है अमी उस में बसी।
जब दरस की प्यास बुझती ही नहीं।
तब भला रस-सोत कैसे है हँसी।
आग बल उठने कलेजे में लगे।
आँख से चिनगारियाँ कढ़ती रहें।
देख उस को जी अगर जलता रहे।
तो हँसी को चाँदनी कैसे कहें।
हैं थली होनहार लीकों को।
लाभ की या सहेलियाँ हैं ये।
कौल की लाल लाल पंखड़ियाँ।
या किसी की हथेलियाँ हैं ये।