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बात ख़ुद से आइने में रू ब रू करता रहा / अजय अज्ञात

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बात ख़ुद से आइने में रू ब रू करता रहा
चांदनी से रातभर मैं गुफ़्तगू करता रहा

हो गया गुम चलते चलते ख़्वाहिशों की राह में
मंज़िलों की उम्रभर मैं जुस्तजू करता रहा

कोशिशें की लाख समझाने की कब माना मगर
बारहा ये दिल तुम्हारी आरज़ू करता रहा

क्या बचाएगा भला वो इस वतन की आबरू
रोज़ जो नीलाम अपनी आबरू करता रहा

जान न पाया हूँ मैं ‘अज्ञात' आखिर किस लिये
हर घड़ी मुझ से अदावत इक अदू करता रहा